मंगलवार, 12 अगस्त 2014

एक टूटा परिंदा

हम खुद के मालिक
हुए जा रहे थे !
नया करूँ तो कैसे करूँ
इस दूविधा में जीये जा रहे थे !

हर वक़्त ये सोचते थे
खुद अपने में मग्न थे !
जिन लोगों ने कुछ पूछा था
वो किस राह में गुम थे !

इस ज़िंदगी का क्या फायदा
जिससे कुछ हासिल ना हो !
इस महफिल में कुछ ऐसे भी हैं
जिनकी कोई मंज़िल ना हो !

दिल करता है आगे बढ़ूँ
पर रूक जाता हूँ ये सोचकर !
डर लगता है कुछ इस तरह
कैसे कहूँ, क्यूँ है दिल बेखबर !

हवाओं की तरह खो गए इरादे मेरे
नहीं कर सकता अब वादे नए !
दिल में कई सारे हैं अरमान मेरे
लेकिन बताऊँ तो बताऊँ किसे ?

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