शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

किससे क्या कहें?

जब उजाले साथ छोड़ दे,
तो साए को दोष कौन दे?
जब मांझी ही नाव डुबे दे,
तो नाव को दोष कौन दे?
जाब माली बाग़ उजाड़े,
तो फूलों को दोष कौन दे?
जाब अपने कफ़न ओढ़ा दें,
तो पडोसी को दोष कौन दे?
जाब मौसम रंग बदल दे,
तो 'विवेक' को दोष कौन दे?

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

अफ़सोस है मुझे

हमें सभी के लिए बनना था
और शामिल होना था सभी में

हमें हाथ बढ़ाना था
सूरज को डूबने से बचने के लिए 
और रोकना अंधकार से
कम से कम आधे गोलार्ध को

हमें बात करना था पत्तियों से
और इकठ्ठा करना तितलियों के लिए
ढेर सारा पराग

हमें बचाना था नारियल का पानी
और चूल्हे के लिए आग

पहनना था हमें
नग्न होते पहारों को
पदों का लिबास
और बचानी थी हमें
परिंदों की चहचाहट

हमें रहना था अनार में दाने की तरह
मेहँदी में रंग
और गन्ने में रस की तरह

हमें यादों में बसना था लोगों के
मटरगस्ती भरे दिनों सा
और दोरना था लहू बनकर
सबो के नब्ज़ में

लेकिन अफ़सोस की हमें
कुछ नहीं कर पाए
जैसा करना था हमें!

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

ज़िन्दगी के दो कदम

ज़िन्दगी के दो कदम
हैं जब कभी बढ़ते हुए!
ज़िन्दगी के दो कदम
हैं कभी-कभी मिलते हुए!
ज़िन्दगी के दो कदम
हैं जब पास आते हुए!
ज़िन्दगी के दो कदम
हैं सदा मुस्कुराते हुए!

ज़िन्दगी ने देख लिया
जब मुझे रोते हुए!
पूछ लिया उसने मुझसे
क्या हुआ है अब तुझे?
ज़िन्दगी के दो कदम
की क्या सुनाऊं दास्ताँ?
ज़िन्दगी के दो कदम
से क्यूँ हैं हम भागते हुए!

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

एक ग़ज़ल - जिगर मुरादाबादी

एक लफ्जे-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है!
सिमटे तो दिले-आशिक, फैले तो ज़माना है!

हम इश्क के मारों का इतना ही फ़साना है!
रोने को नहीं कोई हंसने को ज़माना है!

वो और वफ़ा-दुश्मन, मानेंगे न माना है!
सब दिल की शरारत है, आँखों का बहाना है!

क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क ने जाना है!
हम ख़ाक-नशीनो की ठोकर में ज़माना है!

ऐ इश्के-जुनूं-पेशा! हाँ इश्के-जुनूं पेशा,
आज एक सितमगर को हंस-हंस के रुलाना है!

ये इश्क नहीं आशां,बस इतना समझ लीजे
एक आग का दरिया है, और डूब के जाना है!

आंसूं तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है!