मंगलवार, 31 मार्च 2015

रहस्य ज़िंदगी का


मेरे जीवन का एक ऐसा रहस्य
जो किसी को मालूम नहीं है
जो मैंने आज तक बताया नहीं है
आज बता रहा हूँ तुम सब को
इसलिए क्योंकि अब मैं कुछ भी
पर्दे के पीछे नहीं रख सकता
जानता हूँ तुम सब उत्सुक भी हो
और तुम सब मस्तमौला भी
मैं भी चंचल था, उत्साहित था
पर मुझे ये पता नहीं था
फिर भी डर लगता था
की मैं क्यूँ उस मुट्ठी में बंद हूँ
मैं क्यूँ उस कमरे तक बंधा हुआ हूँ
जिससे बाहर नहीं आ सकता
मैं भी आज़ाद पंछी की तरह रहना चाहता हूँ
मैं भी खुले गगन में उड़ना चाहता हूँ
मैं भी सबको बताना चाहता हूँ
की मेरे अंदर भी एक कला छुपी है
जो एक रहस्य की तरह है
जो मैं भी नहीं जानता
जिसे मैं बाहर निकालना चाहता
पर मैं क्या करूँ
मैं ऐसे माहौल में बड़ा हुआ हूँ
जहां अब मेरी सांस अटकती है
जहां मैं अब जीना नहीं चाहता
दोस्त कुछ मेरे साथ हैं
जिनके साथ कुछ वक़्त बिताकर
खुश रहने की कोशिश करता हूँ
खुद को नए माहौल में ढालना चाहता हूँ
लेकिन अब ज़िंदगी ऐसे मुकाम पर है
जहां से पीछे नहीं आ सकता
और अब मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा !!

शनिवार, 28 मार्च 2015

मेरे जीवनसाथी


इन दिनों नियमित कार्यों में दिल नहीं लग रहे
आश्चर्य होता है हम नजदीक नहीं आ पा रहे
सोच में बसा है वो मुखड़ा, जिसे हम तलाश रहे !!

आज भी याद है मुझे, जब हम पहली दफा मिले थे
हर वक़्त बातों के संग एक-दूसरे में मग्न रहते थे
सुबह-शाम प्रेम का किनारा हम फिर भी तलाश रहे !!

मेरे हमसफर, तुम मेरे जीवनसाथी बन जा
अपने दिल में बसा ले, और खुद को भी भूल जा
न जाने फिर हम कब मिले, जिसका प्रयास हमें रहे !!

हम और तुम आज मिले हैं, इसे जी भर के जी लें
खुशी और ग़म, हर कुछ बाँट लें
वक़्त के इस संगम में मुलाकात बाकी न रहे !!

शनिवार, 7 मार्च 2015

लफ्जों में छुपी दास्तां


एक ऐसे कुटिया में मैं
रहता था परिवार के संग
जिसके दीवार थी टूटी-फूटी
खिड़कीयों में थे झाले पड़े
न जाने वो कौन-सा कमरा था
जिसमे मैं जाने से डरता था
सपने थे ऐसे बड़े-बड़े
जो न जाने कब पूरे होते
मैं मेहनत इतनी करता हूँ
फिर भी अपनों को
खुशी नहीं दे पाता हूँ
हर रोज़ उसे जब मैं
निहारता हूँ
ये समझ न पाता हूँ
कब मिलेगी मुझे बड़ी खुशी ?

घर से जब निकलता हूँ
तो ये सोचता रहता हूँ
क्या आज दो वक़्त की
रोटी नसीब होगी ?
क्या आज चैन से सो पाऊँगा ?
गर्म हवा जब चलती बाहर
पसीने निकलते जब मेरे
मेहनत इतना मैं करता हूँ
फिर कीमत मिलते क्यूँ आधे मुझे ?
सुन ले ज़रा मेरे खुदा
मेरी बस इतनी इच्छा है
अपना छोटा-सा घर चाहता हूँ
बदन पर ढंग के कपड़े मांगता हूँ
परिवार रहे बड़े प्यार से
कभी न हो आपस में झगड़े
मैं तेरी तरह धनवान तो नहीं हूँ
लेकिन इतना धन तो दे मुझे
की अपनों को खुशी से रख सकूँ !

बुधवार, 4 मार्च 2015

निर्बल मन


मैं था एक बेजान पौधा
समझता नहीं था मानवों की भाषा !
नाजुक था, कमजोर था
किसी पे न मेरा ज़ोर था !
जब आया था मानवो के लोक में
तब मैं था स्वस्थ्य और सुशील !
उस वक़्त मैं ये जानता था
की भविष्य में होगी ऐसी दुर्गति !
मैं अब ये सोचता हूँ
की मैं आया ही क्यूँ ऐसे लोक में
जहां न मिल रहा मुझे सम्मान !
जहां हर घड़ी हो रहा मेरा अपमान !
निर्बल हूँ, असहाय हूँ    
इसका अर्थ ये तो नहीं की
मैं कार्य के काबिल न हूँ !
मुझसे है तुम्हारी ज़िंदगी
मुझसे मिलती है तुम्हें हर खुशी
फिर क्यूँ लेते हो तुम मेरी जान ?
क्या तुम्हारे पास नहीं है कोई समाधान !