रविवार, 31 जनवरी 2016

प्यार है या नशा ?

क्यूँ हो गया हूँ मैं गुमशुम ?
क्यूँ खो गया चैन और सुकून ?
क्यूँ लगने लगी है अब दूरी ?
क्या है मेरी मजबूरी ?
क्यूँ इस कदर मैं बेचैन हूँ ?
क्यूँ खुद से ही मैं परेशान हूँ ?
क्या दिलों में बसती है ज़िंदगी ?
क्या मुश्किलों में ही दिखती है हस्ती ?
मन में ऐसे सवाल क्यूँ आने लगे हैं
जैसे किसी को हम चाहने लगे हैं
लग रहा है जैसे
किसी के चाहतों ने पुकारा है
उलझनों के घेरे में
फंस गया ये दिल बेचारा है
प्यार हुआ तो ऐसा लगा
जैसे आखिर किसी ने
मुझे भी समझ लिया हो
मुझे अपना मान लिया हो
अब जब उसे सोचता हूँ
तो एक बेचैनी-सी होने लगती है
ऐसा क्यूँ लग रहा है
जैसे इश्क़ के तूफान किसी
खूबसूरत किनारे पर ले गए हो
जहां सूनेपन में भी खुशी हो
जहां उसके साथ ही समय
बिताने में ही दिल लग रहा हो
पर ज़िंदगी के साथ मौत से भी
इस तूफान में डर लग रहा हो
आखिर किसी ने सच ही तो कहा है ––
“मोहब्बत ना करना ज़िंदगी में !
बहुत ग़म भरे हैं इस दिल्लगी में !”

रविवार, 24 जनवरी 2016

सजा-ए-ज़िंदगी

ऐ खुदा कभी तू प्यार की सजा भी जड़ देना !
तख्ते पे मौत को आखिरी सजा बता देना !
मोहब्बत करना अगर गुनाह है,
तो इस गुनाह को किसी की ज़िंदगी ना बनने देना !
हमने ज़िंदगी में बहुत सजा पाया है !
ज़िंदगी को चढ़ते-उतरते देखा है !
पराए अक्सर अपने हो जाते हैं,
पर अपनों को ही दूर जाते देखा है !
मुसकुराते हुए हर पल को जीना चाहता हूँ !
हर पल को एक नया सहारा देना चाहता हूँ !
पहला पल अगर आखिरी है,
तो इस आखिरी पल को नया नज़ारा देना चाहता हूँ !
मुझे मौत से डर लगता है ऐ खुदा
तू मेरे ज़िंदगी को किसी के नाम कर दे !
साथ रहेगा वो तो डर नहीं रहेगा खोने का
मेरी हर खुशी और ग़म उसके नाम कर दे !
लफ्जों में क्यों हिचकिचाहट है मेरे
नैन में क्यों भर आए आँसू !
बेचैन जिन्हें सोचकर हो रहा हूँ
क्या उनका भी खो गया चैन और सुकून !
क्यूँ दूरियाँ में कोई मुझसे अच्छा महसूस करता है
क्यूँ अपनापन या प्यार मुझसे अलग रखता है !
ज़िंदगी में अच्छाई अगर गुनाह है
तो ऐ खुदा ऐसी ज़िंदगी से बहुत डर लगता है !
ज़िंदगी अकेले जीना चाहता हूँ
अपनों और प्यार से दूर रहना है अब मुझे !
सजा तू जो देगा वो मंजूर होगा
इस ख्वाब के सफर में आखिरी रास्ते हैं मेरे !