शुक्रवार, 25 मार्च 2016

तड़पता मन, क्रोधित पवन

वो ढूंढती थी, वो सोचती थी,
वो चारो ओर बस घूमती थी
जब हार गयी, जब ना पार गयी
जब ये बात आखिर मान गयी
जब कोई ना दिखा सहारा
जब फिर मन हो गया बेचारा
तो वो थक गयी, वो विवश हुई
आंसुओं के संग वो मग्न हुई
वो रोती रही, बिलखती रही
खुद को खुद से संभालती रही
हर दिन, हर क्षण, हर पहर
बंद कमरे मे तड़पता मन
सब हैं साथ में फिर भी
कैद-सा लगता है जीवन
सहेलियों के संग हूँ,
फिर भी दबी-दबी सी हूँ
अपने आँगन में हूँ,
पर डरी हुई सी हूँ
हर रोज़ जाती हूँ पढ़ने को
शिक्षा-गृह में अपने सहेलियों के संग
वो पूछती हैं रोज़ मुझसे
क्या तकलीफ है, बताओ ना हमें भी
जाते वक़्त ये सोचती हूँ
हर रोज़ की तरह हर पल यही
किससे कहूँ, क्या सब कहूँ
पर मैं आंसुओं को पोछकर
खुशियों में मग्न हो जाती हूँ
ताकि किसी को भनक ना लगे
की मैं किस मुश्किलों में जीती हूँ