एक
ऐसे कुटिया में मैं
रहता
था परिवार के संग
जिसके
दीवार थी टूटी-फूटी
खिड़कीयों
में थे झाले पड़े
न
जाने वो कौन-सा कमरा था
जिसमे
मैं जाने से डरता था
सपने
थे ऐसे बड़े-बड़े
जो
न जाने कब पूरे होते
मैं
मेहनत इतनी करता हूँ
फिर
भी अपनों को
खुशी
नहीं दे पाता हूँ
हर
रोज़ उसे जब मैं
निहारता
हूँ
ये
समझ न पाता हूँ
कब
मिलेगी मुझे बड़ी खुशी ?
घर
से जब निकलता हूँ
तो
ये सोचता रहता हूँ
क्या
आज दो वक़्त की
रोटी
नसीब होगी ?
क्या
आज चैन से सो पाऊँगा ?
गर्म
हवा जब चलती बाहर
पसीने
निकलते जब मेरे
मेहनत
इतना मैं करता हूँ
फिर
कीमत मिलते क्यूँ आधे मुझे ?
सुन
ले ज़रा मेरे खुदा
मेरी
बस इतनी इच्छा है
अपना
छोटा-सा घर चाहता हूँ
बदन
पर ढंग के कपड़े मांगता हूँ
परिवार
रहे बड़े प्यार से
कभी
न हो आपस में झगड़े
मैं
तेरी तरह धनवान तो नहीं हूँ
लेकिन
इतना धन तो दे मुझे
की
अपनों को खुशी से रख सकूँ !
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