शनिवार, 7 मार्च 2015

लफ्जों में छुपी दास्तां


एक ऐसे कुटिया में मैं
रहता था परिवार के संग
जिसके दीवार थी टूटी-फूटी
खिड़कीयों में थे झाले पड़े
न जाने वो कौन-सा कमरा था
जिसमे मैं जाने से डरता था
सपने थे ऐसे बड़े-बड़े
जो न जाने कब पूरे होते
मैं मेहनत इतनी करता हूँ
फिर भी अपनों को
खुशी नहीं दे पाता हूँ
हर रोज़ उसे जब मैं
निहारता हूँ
ये समझ न पाता हूँ
कब मिलेगी मुझे बड़ी खुशी ?

घर से जब निकलता हूँ
तो ये सोचता रहता हूँ
क्या आज दो वक़्त की
रोटी नसीब होगी ?
क्या आज चैन से सो पाऊँगा ?
गर्म हवा जब चलती बाहर
पसीने निकलते जब मेरे
मेहनत इतना मैं करता हूँ
फिर कीमत मिलते क्यूँ आधे मुझे ?
सुन ले ज़रा मेरे खुदा
मेरी बस इतनी इच्छा है
अपना छोटा-सा घर चाहता हूँ
बदन पर ढंग के कपड़े मांगता हूँ
परिवार रहे बड़े प्यार से
कभी न हो आपस में झगड़े
मैं तेरी तरह धनवान तो नहीं हूँ
लेकिन इतना धन तो दे मुझे
की अपनों को खुशी से रख सकूँ !

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