मैं
था एक बेजान पौधा
समझता
नहीं था मानवों की भाषा !
नाजुक
था, कमजोर था
किसी
पे न मेरा ज़ोर था !
जब
आया था मानवो के लोक में
तब
मैं था स्वस्थ्य और सुशील !
उस
वक़्त मैं ये न जानता था
की
भविष्य में होगी ऐसी दुर्गति !
मैं
अब ये सोचता हूँ
की
मैं आया ही क्यूँ ऐसे लोक में
जहां
न मिल रहा मुझे सम्मान !
जहां
हर घड़ी हो रहा मेरा अपमान !
निर्बल हूँ, असहाय हूँ
इसका
अर्थ ये तो नहीं की
मैं
कार्य के काबिल न हूँ !
मुझसे
है तुम्हारी ज़िंदगी
मुझसे
मिलती है तुम्हें हर खुशी
फिर
क्यूँ लेते हो तुम मेरी जान ?
क्या
तुम्हारे पास नहीं है कोई समाधान !
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