गुरुवार, 8 अगस्त 2019

नफ़रत की आजमाईश

बैठे कुछ चंद शरीफ़
मेरे पास आकर ।
मेरे लिए थे सब नए
मैं ये जानकर ।
चुपचाप अकेले में मग्न था
मैं ये सोचकर ।
कैसे लब खोलूं, कैसे कुछ बोलूं
तहज़ीब निभा रहा हूं कायदा मानकर ।
वक्त गुजरा, गुज़र गए दिन
साथ चलने लगे बिना सोचे कुछ भी ।
हंसी थी, खुशी भी थी
पराए क्यों होने लगे अपने जैसे ही ।
एक समय ऐसा आया जब
गुज़ारिश ऐसे होने लगी जैसे ख्वाहिश ।
लबों से जब निकले अलविदा के लफ्ज़
क्या शुरू हो चुकी थी नफ़रत की आजमाईश ।

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