शुक्रवार, 10 जून 2016

बेबस ज़िन्दगी

मेरी विवशता, मेरी दुर्बलता
मेरा स्नेह, मेरा विचार
मेरी दबी हुई सोच
जिस पर नहीं है मेरा जोर
मेरी भीड़ में बसी है जिन्दगी
जिसकी कहानी है एक जैसी
रोज जब आँख खुलती है
तो एक नई खोज पर ले जाती है
कहती हूँ खुद को संभालो
पर मेरे मन में एक जिद आ चुकी है
मुझे गिर कर संभालना आ गया है
जो किसी ने नहीं बतलाया है
गली-मोहल्ले, चौक-चौराहे
सड़क किनारे कुछ भिखारी
रोते-बिलखते असहाय बच्चे
ऐसी ही है रोज़ की मेरी जिन्दगी
बदल गया संसार सारा
बदल चुकी है अब लोगों की सोच
खत्म हो गई है सबकी तकलीफ
पर कब भरेगी मेरे जीने की चोट
मैं हार गई हूँ, मैं थक चुकी हूँ
लोगों की ताने सुन-सुनकर
पर अब चाहती हूँ ऐसी जिन्दगी
जिसके बाद ना देखूं पीछे मुड़कर ||

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