रविवार, 31 जनवरी 2016

प्यार है या नशा ?

क्यूँ हो गया हूँ मैं गुमशुम ?
क्यूँ खो गया चैन और सुकून ?
क्यूँ लगने लगी है अब दूरी ?
क्या है मेरी मजबूरी ?
क्यूँ इस कदर मैं बेचैन हूँ ?
क्यूँ खुद से ही मैं परेशान हूँ ?
क्या दिलों में बसती है ज़िंदगी ?
क्या मुश्किलों में ही दिखती है हस्ती ?
मन में ऐसे सवाल क्यूँ आने लगे हैं
जैसे किसी को हम चाहने लगे हैं
लग रहा है जैसे
किसी के चाहतों ने पुकारा है
उलझनों के घेरे में
फंस गया ये दिल बेचारा है
प्यार हुआ तो ऐसा लगा
जैसे आखिर किसी ने
मुझे भी समझ लिया हो
मुझे अपना मान लिया हो
अब जब उसे सोचता हूँ
तो एक बेचैनी-सी होने लगती है
ऐसा क्यूँ लग रहा है
जैसे इश्क़ के तूफान किसी
खूबसूरत किनारे पर ले गए हो
जहां सूनेपन में भी खुशी हो
जहां उसके साथ ही समय
बिताने में ही दिल लग रहा हो
पर ज़िंदगी के साथ मौत से भी
इस तूफान में डर लग रहा हो
आखिर किसी ने सच ही तो कहा है ––
“मोहब्बत ना करना ज़िंदगी में !
बहुत ग़म भरे हैं इस दिल्लगी में !”

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