मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

अफ़सोस है मुझे

हमें सभी के लिए बनना था
और शामिल होना था सभी में

हमें हाथ बढ़ाना था
सूरज को डूबने से बचने के लिए 
और रोकना अंधकार से
कम से कम आधे गोलार्ध को

हमें बात करना था पत्तियों से
और इकठ्ठा करना तितलियों के लिए
ढेर सारा पराग

हमें बचाना था नारियल का पानी
और चूल्हे के लिए आग

पहनना था हमें
नग्न होते पहारों को
पदों का लिबास
और बचानी थी हमें
परिंदों की चहचाहट

हमें रहना था अनार में दाने की तरह
मेहँदी में रंग
और गन्ने में रस की तरह

हमें यादों में बसना था लोगों के
मटरगस्ती भरे दिनों सा
और दोरना था लहू बनकर
सबो के नब्ज़ में

लेकिन अफ़सोस की हमें
कुछ नहीं कर पाए
जैसा करना था हमें!

1 टिप्पणी:

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत रोचक और सुन्दर अंदाज में लिखी गई रचना .....आभार