शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

शहरों की मंज़िल

कैसा है ये सहर
क्यों कोई जाने न ?
कैसा है ये डर
क्यों कोई बतलाये न ?
हर पल हर दम
मैं ये सोचता हूँ !
बारिश की बूंदों को
जब मैं देखता हूँ !
मुझको ऐसा जाने क्यों लगता है !
मन में हमेशा डर क्यों रहता है !
खिलखिलाती धूप की रौशनी
तो दिखती है
पर दिल की रौशनी
अभी भी चारो तरफ
नहीं फैली है !
हादसा तो अभी तक
ख़त्म हुआ नहीं !
दिन-रात तो मुश्किलें तो मिलती हैं
लेकिन मुश्किलों से मैं डरा नहीं !
मंज़िलें आसां हैं
डर एक नया है
पूछूँ मैं कैसे
क्या दिल कह रहा है ?
लोगों से सुनता हूँ
मैं दिल से बड़ा हूँ
क्यों मुझे ऐसा लगता है
मैं पीछे खड़ा हूँ !

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