बेफिजूल की बातों में मुझे मत लाना।
नाजुक है दिल, इसे कैसे समझाना।
कैसे कहूँ, किससे कहूँ, क्या है मेरी दास्तां
नहीं चाहती औरों को अनसुनी बातों में उलझाना।
अपनों ने साथ जब हमारा छोड़ा।
हम हुए अकेले और मुसीबतों ने घेरा।
क्यों ऐसा लग रहा था जैसे अंधेरा साथ हो गया है,
छोटी सी थी मैं और नासमझी ने डाला हुआ था डेरा।
मेरे जन्मदाता के बीच कुछ यूं उलझी पहेली।
रौनक भरे जीवन में अशांति की लगी बोली।
पढ़ने की उम्र में, बढ़ने की उम्र में
बर्बादी की मायाजाल में फंसी उम्मीदों की झोली।
मैं भी डटी रही, हौसले के साथ मजबूत रही।
दिल की बजाए दिमाग की सुन रही।
आगे बढ़ना है, आत्मनिर्भर बनना है,
पर क्या करुं, कैसे करूं, समझ नहीं पा रही।